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दिवाली की प्रासंगिकता. ———————-

विचारों का संसार
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कभी कभी विचार आता है कि क्या हमारे त्यौहार मात्र परम्परा का निर्वहन मात्र नहीं रह गये है, साल भर में आने वाले दिवाली की इस त्यौहार के लिये कई दिनों से इंतजार करते थे, घर की महिलाये १५ दिन पहले से तैयारी में जुट जाती थी. दशहरा को मनाने के बाद का समय इस त्यौहार के लिये ही होता था, सबके लिये नए कपडे, मिठाईया और फटाको का इंतज़ार सबको ही रहता था, अनेक व्यंजन घर पर बनाने के लिये घर की महिलाये जुटी रहती थी, बचपन में माँ के द्वारा कराया गया नर्क चतुर्दशी का अभ्यंग सास्न आज भी सबको याद है, उनका उबटन और खुशबूदार साबुन से नहलाना आज सबको प्रासंगिक लगता है। वह समय आज के आर्थिक वातावरण के अपेशा अनुकूल नहीं था, उस समय हम खेती पर आधारित थे ? रबी और खरीफ के पैसो से सारे त्योहारों का आनंद लेते थे, दशहरा और दिवाली के समय ये दो फसले हमारे त्यौहार की आधार थी, कोई और विकल्प नहीं था, इसी कारण सारे त्योहारों का हम आनंद ले पाते थे, मिठाई या सुन्दर भोजन इन्ही के कारण हमें मिलता था, आज का युग्य पूर्णत व्यावसायिक हो गया है, जब करवा चौथ घर के घर में मनाई जाती थी, आज यह सार्वजानिक रूप में मनाई जाती है, दशहरा एक त्यौहार भर रह गया है, कोई भी सिमोलंघन के लिये नहीं जाता बाजार में बिकने वाले शमी पत्र ही हमारे लिये सोना है, वह बीता समय त्योहारों का मजा देता था, आज के इस व्यावसायिक युग में हम सब व्यवसायिक हो गये है, व्यंजन जब चाहो तब मिल जाते है? मिठाई रोज खाते है,नये कपडे जब चाहे पहन लेते है ? इस कारण हमारे त्योहारों की महता कुछ कम नहीं हो गयी लगता नहीं है ? आज के उबटन और सुंगधित साबुन मात्र परम्परा का निर्वहन नहीं बन गया है ? इन सबमे वह आत्मीयता कही खोगई ऐसा लगता नहीं है ? हमारी पीढ़ी को यह त्यौहार हमेशा याद रहे यही हमारी कामना रहती है ? आने वाला युग बेहद कठिन है ? व्यस्त होगा ? तब हमारे इन त्योहारों की पहिचान कराने वाला वाला कोई मिलेगा ? प्रयास यही होना चाहिए कि हम मिठाई और नये कपड़ो का उपयोग इन्ही समयों में करने का संस्कार बच्चों में डाले, हमारी संस्कृति को बचाने का एक मात्र उपाय यही है, जहा तक इन त्योहारों में एक दूसरे से सदभाव के साथ मिलने का प्रश्न है अनेक अवसर इसके लिये पैदा हो गये है, कही जन्म दिन तो कही सेवा निवृति के दिन यह मिलन हो जाता है, कोई कारण नहीं मिला तो गेट टू गेथर का कार्यक्रम रख दिया जाता है, यह सब कान्वेंटी संस्कृति है, इसको साथ लेते हुए हमारी संस्कृति को हमें बचाना होगा, अन्यथा कई सालो बाद दिवाली दशहरा इतिहास बन जायेंगे, बाकी त्योहारों का क्या वजूद। सोचे ?

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