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जीवन में तब तकलीफ होती है, जब अपने ही अपनोंको तकलीफ देते है. यह कष्ट मानसिक होता है, यह त्रास हमेशा कष्ट दायक होता है. और जीवन पर्यंत साथ में रहता है. मार का दर्द कुछ समय तक रहता है. इसके ठीक होने के बाद सब ठीक हो जाता हैं किन्तु मानसिक त्रास हमेशा साथ रहता है मानसिक त्रास के शिकार भगवान राम भी हुए थे इसीलिए उन्होंने वन का रास्ता तय कर लिया था और इस त्रास से मुक्ति पा ली थी, इसीलिए हम उन्हें भगवान के रूप देखते है, आज सब मानसिक त्रास झेल रहे है. वे इसीलिए चुप है कि घर की बात बाहर न जाये? घर की बात एक तय सीमा तक घर में रहेगी उसकी सीमा ख़त्म होने के बाद कभी तो बाहर आएगी? जीवन में कोई सुखी नहीं है? इसीकोआधार मानकर स्वामी रामदास ने कहा कि “जगी सर्व सुखी असा कोण आहे विचारा मनी तूच शोधनु पाहे”? स्वामी रामदास की बात को अलग कर जो देखते है वे सब सुखी है और सुखी होने का मेरे मतानुसार नाटक करते है? इस नाटक का यथा समय पर्दापाश हो जाये तो अधिक अच्छा है? अन्यथा यह हमारे बाद एक महाभारत का रूप लेगा तब न सारथी भगवान कृष्ण होंगे और नहीं हमें भीष्म पितामह जैसा योध्या मिलेगा और कवच कुंडल से युय्क्त हमें कर्ण मिलेगा? तब हम क्या कर सकते है? इस समय हम प्रेतात्मा के रूप में उनसे अपना तर्पण कराएँगे जिन्होंने हमें आशिया में रखा था? अचानक तर्पण केयोग्य हमें माना यह लोकलाज का अनूठा उदहारण यह होसकता है? विचारणीय प्रश्न है
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